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Bhakt Prahlaad

विष्णु पुराण में ऐसा उल्लेख मिलता है कि जब पृथ्वलोक पर असुरों के अत्याचार से समस्त भूमण्डल त्राहि - त्राहि कर रहा था। तब हिरण्यकश्यप घोर तप कर रहा था। जिसकी वजह से देवराज इंद्र भयभीत होने लगे, और वह कयाधु को मारने के लिए उसे बंधक बनाकर इंद्रलोक ले जाने लगे, तभी देवऋषि नारद ने इंद्रदेव को देखा। नारद जी ने कहा - "हे देवराज इंद्र! आप यह क्या करने जा रहे है? क्या आप नहीं जानते कि कयाधु इस समय गर्भावती है? तथा उसके गर्भ में जो बालक है वो एक महान भक्त है। आप उसकी हत्या करेंगे क्या इंद्रदेव?" नारद जी की ये बातें सुनकर सुनकर इंद्रदेव डर गये। उन्होंने नारद जी से क्षमा मांगते हुए कहा मुझसे भूल हो गयी मुनिवर।

जिसके बाद नारद जी, हिरण्यकशिपु की गर्भवती पत्नी कयाधु को अपने आश्रम में ही लेकर आ गये। जहाँ पर उन्होंने कयाधु को ज्ञान और भक्ति का उपदेश दिया। कहा जाता है और विज्ञान सम्मत भी है कि माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धि विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है। देवऋषि नारद के आश्रम में रहते समय ही असुर सम्राट हिरणकश्यप की पत्नी कयाधु ने एक विष्णु भक्त पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया प्रह्लाद। असुर कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त और सेवक था। फिर कयाधु, नारद जी के आश्रम में तब तक रही, जब तक हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या पूरी नहीं कर ली।

किन्तु, कहा जाता है कि ज्ञान की मात्रा और ठहराव पात्र के अनुसार ही आती है। जिस प्रकार लोहा जब तक आग में रहता है तभी तक वो गर्म रहता है, जैसे ही उसको निकाला जाता है वैसे ही लोहे की गर्मी कम होने लगती है और कुछ देर बाद लोहा बिलकुल ठंडा हो जाता है। इसी प्रकार से प्रह्लाद की माता कयाधु का अंतःकरण (मन-बुद्धि) भी था। उसने नारद जी का उपदेश तो सुना किन्तु कुछ समय बाद सब कुछ भूल गयी। लेकिन माँ के पेट में भक्त प्रह्लाद ने सारा ज्ञान सुन लिया और ग्रहण भी  किया। इसलिए जब प्रह्लाद पैदा हुए तो वे जन्म से ही भगवान विष्णु के भक्त थे।

प्रह्लाद से पहले भी कयाधु के अन्य चार पुत्र थे। किन्तु उनका जन्म महल में ही हुआ था तथा उन चारों की प्रवृत्ति दानवीय थी। प्रह्लाद का जन्म चूँकि नारद जी के आश्रम में ही हुआ था, इसलिए वहाँ ऋषियों एवं संतो का संग पाकर छोटी आयु में ही प्रह्लाद ने वेद, शास्त्रों व भक्ति आदि का ज्ञान अर्जित कर लिया। भक्त प्रह्लाद एक नित्य सिद्ध महापुरुष है। इस लीला में प्रह्लाद जी नारद जी से ज्ञान अर्जित कर रहे है। परन्तु वास्तविकता यह ही की प्रह्लाद जी को हमेशा से भक्ति का ज्ञान था।

जब हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या ख़त्म कर ली। तब कयाधु प्रह्लाद के साथ महल में आयी। पिता हिरण्यकश्यप ने अपने छोटे पुत्र से एक दिन पूछा कि  तुम्हे क्या करना पसंद है। तब प्रह्लाद बोले कि मुझे हरि की भक्ति करना बहुत पसंद है। हिरण्यकश्यप को यह सुनकर बड़ा क्रोध आया, क्योंकि उसके भाई हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने ही किया था। इसके बाद उसने प्रह्लाद को दैत्यों के गुरुकुल में भेज दिया। जहां पर शिक्षकों ने प्रह्लाद को बहुत समझाया कि वह हरि भक्ति का त्याग कर दे किन्तु वह अपने संकल्प से नहीं डिगे। 

हिरण्यकश्यप ने अपने गुरु शुक्राचार्य के पुत्रों शंद और अमर्क को बुलाया। हिरण्यकश्यप ने गुरु पुत्रों से कहा कि प्रह्लाद को ले जाओ इसको पढ़ाओ तथा साम, दाम, दण्ड, भेद किसी प्रकार से समझाओ, जो राजाओं का लक्ष्य होता है उसका ज्ञान कराओ। प्रह्लाद को भला कौन पढ़ा सकता था, वह तो गर्भ में ही सिद्ध महापुरुष थे। मगर फिर भी लीला करते हुए जो गुरु पढ़ाते है वह प्रह्लाद सुना देते थे। 

लेकिन भागवत के अनुसार "कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम्" की प्रह्लाद को छोटी आयु में ही हरि रूपी ग्रहण लग गया था। इसलिए वह जगत को कुछ समझते ही नहीं थे, संसार भी कोई तत्व है, ऐसा वह मानते ही नहीं थे। मां हो, भाई हो, बेटा हो, पति हो, पत्नी हो, ऐश्वर्य हो संसार का, यह सब उनको शून्य लगता था। प्रह्लाद तो सदैव ही श्री हरि के भक्ति प्रेम में डूबे रहते थे। "क्वचित्तद्भावनायुक्तस्तन्मयोऽनुचकार ह" कभी-कभी तो वो इतने डूब जाते थे श्री हरि प्रेम में कि भूल जाते थे कि मैं प्रह्लाद हूँ। 

हिरणकश्यप को अपने पुत्र पर बड़ा क्रोध आता था। क़्योकि अपने राज्य में हिरण्यकश्यप स्वयं की पूजा करवाता था और यदि कोई किसी अन्य देवी देवताओं की पूजा करता तो उसका मरना निश्चित था चाहे वह उसका पुत्र ही क्यों ना हो। अनेक प्रकार से हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को भगवान विष्णु की भक्ति करने से मना किया परन्तु वह नहीं माने। तो उसे मारने का प्रत्यन किया किन्तु हजार प्रत्यन करने के बाद भी वह भक्त प्रहलाद को नहीं मार सका। अंत में पुत्र प्रह्लाद से अत्यंत कुपित होकर हिरण्यकश्यप बोला- "मैं तीनो लोकों का नाथ हूँ। मेरे आलावा अगर कोई अन्य ईश्वर है तो वह कहाँ है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया - "ईश्वर सर्वव्यापी हैं। वे सर्वत्र विराजमान हैं"। हिरण्यकश्यप गरज उठा, उसने कहा कि- "क्या तेरा विष्णु महल के इस स्तंभ में भी मौजूद हैं?" 

प्रह्लाद बोले - "हाँ, इस स्तंभ में भी भगवान का वास है पुत्र के उत्तर को सुन हिरण्यकश्यप ने मुट्टी बनाकर जोर से स्तंभ (खंभे) पर प्रहार किया। खंभे में दरार पड गयी। उसके अंदर से भगवान नरसिंह (नर + सिंह) के रूप में प्रकट हुए। हिरण्यकश्यप को अपनी जंघा पर रखकर महल की देहरी में खड़े होकर अपने नाखूनों से उसके सीने को चीर कर वध कर दिया। निष्कलंक भक्त प्रह्लाद के मुख से निकले वचन अंततः सत्य सिद्ध हुए।

हिरण्यकश्यप का वध करने के बाद नरसिंह भगवान बहुत क्रोध में थे। ऐसा देख सभी देवता आए और नारद जी से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप भगवान की  स्तुति करने के लिए जाये। किन्तु नारद जी, नरसिंह भगवान का वह क्रोधित रूप देखकर उनके पास जाने का साहस नहीं जूटा सके। इसके बाद देवताओं ने ब्रह्मा जी तथा लक्ष्मी जी से जाने के लिए कहा मगर उन्होंने भी कहा कि हमसे श्री हरि का यह क्रोध मय स्वरूप देखा नहीं जा रहा है। फिर सभी ने उनकी प्रिय भक्त प्रह्लाद जी से कहा कि आप जाइए। प्रह्लाद जी गए और उन्होंने भगवान की स्तुति की फिर सभी लोगों में जय हो जय हो का जयघोष होने लगा।

इसके पश्चात अंत में नरसिंह भगवान ने प्रह्लाद को यह आज्ञा दी कि वह अपने पिता का अंतिम संस्कार करके, राज्य करें। भगवान नरसिंह की इस आज्ञा का पालन भक्त प्रह्लाद ने किया। उन्होंने हिरण्यकश्यप का अंतिम संस्कार किया, तथा राज्य का राजभार संभाला। प्रह्लाद जी ने विवाह भी किया और उनके चार पुत्र भी हुए। भक्त प्रह्लाद की गिनती निष्काम भक्तों की श्रेणी में की जाती है।