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Dhruv Bhakt

राजा उतान्पाद ब्रह्मा जी के पुत्र मनु के पुत्र थे। उनका विवाह एक बहुत ही सुंदर कन्या से हुआ था जिनका नाम सुनीति था। राजा अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए रानी ने राजा को दूसरा विवाह करने कहा। राजा अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे इसलिए उन्होंने मना कर दिया और कहा कि दूसरी पत्नी के आने से तुम्हारा स्थान कम हो जायेगा जिस पर सुनीति ने कहा मुझे आप पर विश्वास हैं ऐसा नहीं होगा।

राजा को सुनीति की हठ माननी पड़ी और उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। उनकी दूसरी पत्नी का नाम सुरुचि था। विवाह के बाद जब सुरुचि महल आई। तब उसे राजा की पहली पत्नी के बारे में पता चला। यह जानने के बाद सुरुचि ने उत्तानपाद से कहा – जब तक आपकी पहली पत्नी वन प्रस्थान नहीं करेगी वो महल में प्रवेश नहीं करेगी।यह सुनकर सुनीति स्वयम ही राज महल त्याग कर वन में रहने चली गई।

कुछ समय बाद, राजा शिकार के लिए वन में जाते हैं और घायल हो जाते हैं। यह बात जब सुनीति को पता चलती हैं तो वो राजा को अपनी कुटिया में लाकर उनका उपचार करती हैं। राजा कई दिनों तक अपनी पहली पत्नी के साथ रहते हैं। उस दौरान सुनीति गर्भवती हो जाती हैं।और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती हैं जिसका नाम ध्रुव रखा जाता हैं।जिसके बारे में राजा को ज्ञात नहीं रहता।

कुछ दिनों, बाद राजा अपने महल चले जाते हैं। वहाँ भी रानी सुरुचि को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती हैं जिसका नाम उत्तम रखा जाता हैं।

कुछ समय बाद राजा उत्तानपाद को ध्रुव के बारे में पता चलता हैं वो रानी सुनीति को महल में आने का आगृह करते हैं लेकिन वो नहीं आती। ध्रुव को कभी कभी महल भेज दिया करती। यह सब देख रानी सुरुचि को ध्रुव से घृणा होने लगते हैं। एक दिन ध्रुव अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठता हैं। यह देख रानी सुरुचि को क्रोध आ जाता हैं और वो उसे धक्का देकर अपशब्द कहती हैं और उसे छोड़ी हुई स्त्री का पुत्र कहकर अपमानित करती हैं।

नन्हा ध्रुव कुटिया में आकर माँ को पूरा घटनाक्रम सुनाता हैं।तब माता सुनीति उसे समझाती हैं। बेटा अगर कोई बुरा कहे तो उसके बदले में उसे बुरा मत कहो। इससे तुम्हे ही हानि होगी। अगर तुम अपने पिता की गोद में सह सम्मान बैठना चाहते हो तो भगवान विष्णु की उपासना करो वो जगत पिता हैं। अगर बैठना हैं तो उनकी गोद में बैठो।


बालक ध्रुव के मन में यह बात बैठ जाती हैं। और वह यही भाव लिए यमुना तट पर नहाने जाता हैं। वहाँ उसकी मनोदशा जानकर नारद मुनि आते हैं और वो ध्रुव को भगवान की भक्ति की विधि बताते हैं जिसे जानने के बाद ध्रुव कठोर तपस्या में लीन हो जाता हैं। कई महीनो तक खड़े होकर तपस्या करता हैं। कभी जल में तपस्या करता हैं तो कभी एक ऊँगली पर खड़े रहकर। निरंतर ॐ नमो वासुदेवाय का जाप पुरे ब्रह्माण में गूंजने लगता हैं। 

नन्हे से बालक की इस घौर तपस्या को देख भगवान् उसे दर्शन देते हैं। बालक ध्रुव भाव विभौर हो उठता हैं और कहता हैं मुझे माता, पिता की गोद में बैठने नहीं देती। मेरी माँ कहती हैं कि आप इस श्रृष्टि के पिता हैं। अतः मुझे आपकी गोद में बैठना हैं। भगवान उसकी इच्छा पूरी करते हैं और उसे तारा बनने का आशीर्वाद देते हैं जो कि सप्त ऋषियों से भी ज्यादा श्रेष्ठ होगा। उस दिन से आज तक आसमान में उत्तर दिशा की और ध्रुव तारा चमक रहा हैं।