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क्यों नहीं बजाया जाता शंख बद्रीनाथ मंदिर में

बद्रीनाथ मंदिर का नाम तो आपने सुना ही होगा, जिसे हिंदू धर्म के पवित्र चार धामों में से एक माना जाता है। इस मंदिर में भगवान विष्णु विराजमान हैं। वैसे आमतौर पर किसी भी मंदिर में पूजा के समय शंख बजाना अनिवार्य होता है, लेकिन यह एक ऐसा मंदिर है, जहां शंख बजाया ही नहीं जाता। 

उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित यह एक प्राचीन मंदिर है, जिसका निर्माण सातवीं-नौवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। इसे भारत के सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक माना जाता है, क्योंकि यहां हर साल लाखों लोग भगवान बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में भगवान बद्रीनारायण की एक मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे भगवान शिव के आवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में पास ही स्थित नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था। कहा जाता है कि यह मूर्ति अपने आप धरती पर प्रकट हुई थी।

इस मंदिर में शंख नहीं बजाने के पीछे ऐसी मान्यता है कि एक समय में हिमालय क्षेत्र में दानवों का बड़ा आतंक था। वो इतना उत्पात मचाते थे कि ऋषि मुनि न तो मंदिर में ही भगवान की पूजा अर्चना तक कर पाते थे और न ही अपने आश्रमों में। यहां तक कि वो उन्हें ही अपना निवाला बना लेते थे। राक्षसों के इस उत्पात को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद माता कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से सारे राक्षसों का विनाश कर दिया।

हालांकि आतापी और वातापी नाम के दो राक्षस मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए भाग गए। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया जबकि वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। इसके बाद से ही बद्रीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित हो गया और यह परंपरा आज भी चलती आ रही है।

पहला कारण यह है कि बद्रीनाथ मंदिर बर्फ से ढका हुआ रहता है। ऐसे में शंख बजाने से इससे निकलने वाली ध्वनि बर्फ से टकरा सकती हैं। जिससे बर्फीले तूफान आने का खतरा बढ़ जाता है।

ब्रदीनाथ में शंख न बजाए जाने का एक आध्यात्मिक कारण भी है। शास्त्रों के अनुसार एक बार मां लक्ष्मी बद्रीनाथ में बने तुलसी भवन में ध्यान कर रहीं थी। तभी भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण नामक राक्षस का वध किया था। चूंकि हिंदू धर्म में विजय पर शंख नाद करते हैं, लेकिन विष्णु जी लक्ष्मी जी का ध्यान भंग नहीं करना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने शंख नहीं बजाया। तब से बद्रीनाथ में शंख नहीं बजाया जाता है।

एक समय पर हिमालय क्षेत्र में असुरों का आतंक था। ऋषि मुनि असुरों से भयभीत हो अपने आश्रमों में पूजा अर्चना भी नहीं कर पाते थे।

यहीं पर एक मंदिर साढ़ेशवर जी का भी था। साढ़ेशवर महाराज के मंदिर में जो भी ब्राह्मण पूजा-अर्चना के लिए पहुंचते थे, राक्षस उसे अपना निवाला बना लेते थे। इससे साढ़ेशवर महाराज ने अपने भाई अगस्त्य ऋषि से मदद मांगी।

अगस्त ऋषि साढ़ेशवर मंदिर में पूजा अर्चना करने गए। लेकिन राक्षसों का उत्पाद देखकर परेशान हो गए। जब कुछ भी समझ नहीं आया तो उन्होंने माँ भगवती को याद किया। जिससे माँ भगवती वहां कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुई। उन्होंने त्रिशूल और कटार से वहां मौजूद समस्त राक्षसों का वध कर दिया। परंतु देवी से बचने के लिए आतापी और वातापी नाम के दो राक्षस वहां से भाग निकले। आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया और वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख में छुप गया।

इसके बाद से ही बदरीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित हो गया। बद्रीनाथ हिंदू धर्म के चार धामों में से एक है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं। हिंदुओं में पूजा के समय शंख बजाना अनिवार्य होता है, परंतु इस मंदिर में शंख नहीं बजाया जाता।

अगस्त्य मुनि केदारनाथ में राक्षसों का संहार कर रहे थे। तभी उनमें से दो राक्षस अतापी और वतापी वहां से भागने में कामयाब हो गए। बताया जाता है कि राक्षस अतापी ने जान बचाने के लिए मंदाकिनी नदी का सहारा लिया।

वहीं राक्षस वतापी ने बचने के लिए शंख का सहारा लिया। वो शंख के अंदर छुप गया। माना जाता है कि अगर उस समय कोई शंख बजा देता तो असुर उससे निकल के भाग जाता। इसी वजह से बद्रीनाथ में शंख नहीं बजाया जाता है।