Home » Blog »significance-of-makar-sankranti-festival

मकर संक्रांति पर्व का महत्व

तमसो मा ज्योतिर्गमय - हे सूर्यदेव! हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो...

हिंदू विक्रमी सम्वत पंचांग के अनुसार माह को दो भागों में बाँटा गया है - कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। इसी तरह वर्ष को भी दो भागों में बाँटा गया है। पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। ये दोनो अयन को मिलकर एक वर्ष होता है। मकर संक्रांति पर्व के दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने की दिशा को बदलते हुए थोड़ा उत्तर की ओर ढलना शुरू कर देता है। इसलिए मकर संक्रांति के बाद छह महीने का कालखंड उत्तरायण कहलाता हैं।

सूर्य की गति पर आधारित गणना से मनाये जाने वाले पर्व मकर संक्रांति का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व माना गया है। वेद और पुराणों में भी मकर संक्रांति  का विशेष उल्लेख देखने को मिलता है। मकर संक्रांति पर्व प्रत्येक वर्ष होने वाली एक खगोलीय घटना है, जिससे जड़ और चेतन की दशा और दिशा तय होती है। मकर संक्रांति का महत्व हिंदू धार्मिक मान्यता वाले लोगो के लिए कुछ वैसा ही है जैसा वृक्षों में पीपल, हाथियों में ऐरावत और पर्वतों में हिमालय का है।

सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है। इस राशि परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं। यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसे भारत के सभी भागों में मनाया जाता है, हालाँकि इसका नाम और मनाने के तरीके काफी भिन्न है। मगर इसका महत्व सभी जगह बहुत अधिक है।

मकर संक्रांति के दिन से हमारी धरती एक नए वर्ष में और सूर्य एक नई दिशा व राशि में प्रवेश करते है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार कहा जाता हैं कि 21 मार्च को पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूर्ण कर लेती है, इसके अनुसार तो नववर्ष तभी मनाया जाना चाहिए। हालाँकि हिंदी विक्रमी सम्वत 21 मार्च के आसपास ही शुरू होता है और गुड़ी पड़वा पर्व मनाया जाता है। मगर 14 जनवरी के दिन से, धरती पर शुभ दिनों की शुरुआत होती है, ऐसा इसलिए क्योंकि सूर्य दक्षिण के बजाय अब उत्तर की ओर गमन करने लगते है। जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण दिशा की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों का असर अच्छा नहीं माना जाता है, लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करते लगता है तब उसकी किरणें सेहत, स्वास्थ्य और शांति को बढ़ाने वाली मानी जाती हैं।

मकर संक्रांति के दिन ही पवित्र गंगा नदी का भी धरती पर अवतरण हुआ था। महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था, जिसका कारण है कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें मुक्ति मिल जाती है। दक्षिणायन के समय में देह छोड़ने पर एक लम्बे काल तक आत्मा को अंधकार का सामना करना पड़ सकता है। 

सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के आधीन है, इसलिए सभी कुछ प्रकृति के साथ बंधा हुआ है। जिस प्रकार एक पौधा प्रकाश में अच्छे से खिलता है, अंधकार में सिकुड़ भी सकता है। इसीलिए मृत्यु भी यदि प्रकाशवान स्थिति में होती है तो आत्मा की गति और स्थिति स्पष्ट हो जाती है। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने भी उत्तरायण काल का महत्व बताते हुए गीता में कहा है, कि उत्तरायण के छह मास वाले शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तब इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने वाले व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने की स्थिति में पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने वाले मनुष्य को पुनः जन्म लेना पड़ता है।