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Maa Kali

देवी माँ काली को मृत्यु, समय और प्रलय की हिंदू देवी माना जाता हैं और इनका रूप भयानक और दुष्टों का संहार करने वाला माना जाता हैं। किन्तु माँ काली को एक बलशाली और मातृ प्रेम से भरी देवी का प्रतीक भी माना जाता है। माँ काली भी शक्ति - स्त्री ऊर्जा, रचनात्मकता और नव सृजन का प्रतीक हैं - और भगवान शिव की पत्नी माँ पार्वती(गौरा) का ही एक अवतार हैं। उनका प्रतीकात्मक स्वरुप कलाकृति में एक भयंकर और लड़ने के लिए तैयार देवी की तरह प्रस्तुत किया जाता है। उनकी प्रतिमा स्वरुप को नर मुंडो से बनी एक माला पहने दिखाया गया है। अस्त्र और शस्त्रों को भुजाओं में धारण किये हुए है, रक्त लगी क्रोधित मुद्रा बाहर निकली हुई जीभ। एक हाथ में नर मुंड और दूसरे में इनका प्रमुख शस्त्र खड़ग प्रमुखता से दिखाया जाता है।

काली नाम संस्कृत अर्थ है 'वह(स्त्री) जो काला है' या 'वह(स्त्री) जो मृत्यु है', किन्तु उनको चतुर्भुज काली, चिन्नमस्त, या कौशिका के नाम से भी जाना जाता है। काल के एक अवतार के रूप में माँ काली सभी चीजों को निगल लेती हैं, वे नश्वर है तथा देवताओं के लिए ईश्वर का पूजनीय स्वरूप है। देवी काली माँ के उस परोपकारी रूप का प्रतिनिधित्व भी करती हैं जो अपने भक्तो पर आये संकट हरने के लिए दुष्टो का संहार करती है।

देवी माँ काली की पूजा विशेषतः पूर्वी और दक्षिणी भारत में की जाती है जिनमे से असम, केरल, कश्मीर, बंगाल राज्यों में - उनको अमावस्या तिथि की रात को काली पूजा उत्सव का आयोजन करके वार्षिक उत्सव के रूप में भी पूजा जाता है। कलकत्ता शहर के कालीघाट मंदिर में माँ काली का प्रमुख स्थान बताया जाता है।

काली के अवतरण से जुडी कई कथाएं प्रचलित हैं। जिनमे से एक के अनुसार जब दश भुजाएं धारण करने वाली देवी माँ दुर्गा,  जो शेर या बाघ की सवारी करती है, वह दैत्य महिषासुर (भैंसा) से लड़ीं थी। माँ दुर्गा तब इतनी अधिक क्रोधित हो गईं थी कि उनका क्रोध माँ काली के रूप में माता के मस्तक से उत्पन्न हुआ था। अवतार लेने के बाद, देवी माँ काली ने भयंकर रूप धारण कर जो भी राक्षस दिखाई दिए उन सबका संहार किया, उनके मुंडों (सिरों) की एक माला बनायीं, जिसे माँ काली ने अपने गले में धारण किया।

माँ काली तब भयंकर क्रोध में थी जिसको शांत करना असंभव लग रहा था, उस समय उनके सम्मुख आने वाला हर दुष्ट उनके क्रोध की ज्वाला से समाप्त हो रहा था। उनके इस रूप से अब प्राणियों और देवताओं में भय उत्पन्न हो गया था। जिसके निराकरण के लिए और माँ काली के इस विध्वंसक स्वरुप को शांत करने के लिए आदिनाथ भगवान् शिव ने उनके रास्ते में लेटना भी स्वीकार किया। अपने पैरों में लेटे शिव को देखकर जब देवी माँ काली को यह आभास हुआ कि वह किसके उपर खड़ी है, तो उनको अपने मूल स्वरुप का ध्यान हुआ और वह शांत हो गयी।

देवी माँ काली के जन्म के साथ एक और संस्करण जुड़ा हुआ है इसके अनुसार, माता पार्वती के द्वारा अपनी काली त्वचा को बहा दिये जाने पर उनका वह स्वरुप तब काली बन गया। इसीलिए उनका एक नाम कौशिका (म्यान) भी है, जबकि माँ पार्वती को गौरी के (मूल) रूप में छोड़ दिया गया है। यह कथा माँ काली के कालेपन को  अवतरण का आधार बताती है जो एक शाश्वत अंधकार का प्रतीक है तथा जिसमें विनाश और सृजन दोनों की क्षमता है।

एक तीसरे कथानक के अनुसार, प्राणियों और देवताओं को दारुक नमक दैत्य द्वारा आतंकित किया जा रहा था, जिसका संहार केवल एक स्त्री शक्ति के द्वारा ही किया जा सकता था। सभी देवताओं ने तब माँ पार्वती से उस राक्षस का संहार करने  का आह्वाहन किया। जिसके लिये भगवान् शिव के कंठ (गले) में भरे विष की सहायता से माँ पार्वती के नए स्वरुप का निर्माण किया गया। जिसका कारण था भगवान् शिव द्वारा निगले गए हलाहल उपयोग करना, जो विष समुद्र - मंथन से निकला था और जिसने सृष्टि में प्राणियों के जीवन को संकट में डाल दिया था। भगवान् शिव के गले के उसी जहर से माँ पार्वती को एक नया स्वरुप माँ काली के रूप में दिया गया। शिव के कंठ से प्राप्त विष की शक्ति से माँ काली ने दारुका नामक उस दैत्य का संहार किया और सृष्टि को उसके उत्पीड़न और अत्याचार से मुक्त किया।

माँ काली के जन्म से जुड़े एक और कथानक में भी उन्हें एक अन्य दैत्य के संहारक के रूप में ही दर्शाया गया है। यह कहानी है बलशाली दानव रक्तबीज की। यह दानव भी अन्य राक्षसों की तरह ही दुष्ट और पापी था, जिसने सृष्टि के प्राणियों और देवताओं को बहुत परेशान कर रखा था। इस दैत्य के पास बहुत शक्ति थी जिसका कारण था इसको मिला वह वरदान जिसमे इसके जमीन पर गिरे हर रक्त की बून्द से इसके जैसे एक और दैत्य का जन्म हो जाता था। इसलिए, जो भी रक्तबीज पर हमला करता था तो परिणाम स्वरुप उसके जैसे और अधिक रक्तबीज राक्षसों का निर्माण हो जाता था।

तब देवताओं ने एक मिलकर अपनी सभी शक्ति, दिव्य ऊर्जा को मिलाकर एक नयी शक्ति के निर्माण करने का निर्णय किया जो रक्तिबीज राक्षस को नष्ट कर सकती थी। इस नई शक्ति को माँ काली का नाम दिया गया। कुछ जगह केवल माँ दुर्गा के द्वारा माँ काली का निर्माण किया जाना बताया जाता हैं। देवताओं द्वारा दिए गए सभी दिव्य अस्त्रों और शक्तियों से माँ काली ने तीव्रता से रक्तबीज और उसके द्वारा निर्मित राक्षसों की तलाश की और उन सभी को निगलना प्रारम्भ किया, ताकि इस क्रिया में रक्त के धरती पर गिरने से नए राक्षस का निर्माण न हो सके। रक्तबीज के मुंड(सिर) को अपनी तलवार से काटकर माँ काली ने  उसका सारा रक्त पी लिया था, जिससे उसके रक्त की कोई भी बून्द जमीन पर नहीं गिरी। इस प्रकार माँ काली ने सृष्टि के सभी प्राणियों को रक्तबीज नामक दैत्य के भय से मुक्त किया था।

माँ काली से जुड़ी एक और प्रसिद्ध कहानी है वह चोरों के एक समूह के साथ भाग निकली। चोर काली को एक मानव बलि देना चाहते थे, और अनजाने में एक ब्राह्मण भिक्षु को एक संभावित शिकार के रूप में चुना। उसे पास के मंदिर में घसीटते हुए, चोर काली की प्रतिमा के सामने बलि देने के लिए तैयार हुए जब अचानक प्रतिमा आ गई। एक भिक्षु को मारने की चोरों की योजना से नाराज, देवी ने तेजी से बदला लिया और पूरे गिरोह को तबाह कर दिया, यहां तक कि अपने सिर को मज़े के लिए फेंक दिया, जबकि स्वाभाविक रूप से ब्राह्मण विद्वानों के प्रतिबिंब के अपने जीवन को जारी रखने के लिए भाग गए।


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