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Dev Deepawali

कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है, इसे त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक दुष्ट राक्षस का अंत किया था और शिव जी का एक नाम त्रिपुरारी इस घटना के बाद ही पड़ा था। इसलिए कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी देवता अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए गंगा घाट पर आकर दीपक जलाते हैं। इसी कारण से इस दिन को देव दीपावली के रूप मनाया जाता है। 
 
ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृतिका नक्षत्र में भगवान शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्मो तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है इस दिन चन्द्रमा जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी का आशीर्वाद प्राप्त होती है।
 
इस दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है ऐसी भी एक मान्यता है, जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ शिव का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है कार्तिक पूर्णिमा को शैव मत में जितना महत्व् दिया जाता है  उतना ही वैष्णव मत में भी दिया जाता है।
 
वैष्णव मत में कार्तिक पूर्णिमा को इतना अधिक महत्व इसलिए दिया जाता है, क्योंकि इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था। इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है यदि कार्तिक पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी अधिक हो जाता है, अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व कई गुणा बढ़ जाता है इस दिन कृतिका नक्षत्र में यदि चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह तिथि महापूर्णिमा कहलाती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य होने से “पद्मक योग” बनता है, जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर स्नान से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। 
 
देव दिपावली पर्व की एक और मान्याता यह भी है कि इस दिन भगवान विष्णु चर्तुमास की निद्रा से जागते हैं और चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और सभी देवी देवता काशी में आकर दीप जलाते हैं। इसी कारण से काशी में इस दिन दीपदान का अत्यधिक महत्व माना गया है।
 
देव दीपावली - कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान :

कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप मिट जाते है अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत अधिक महत्व बताया गया है। इस दिन किये गए दान का व्यक्ति को कई गुणा लाभ प्राप्त होता है साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि मनुष्य इस दिन जो कुछ भी दान करता हैं वह स्वर्ग में उसके लिए संरक्षित रहता है, जोकि मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में मनुष्य को प्राप्त होता है।
 
कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य  प्राप्त होने का वर्णन पुराणों में भी देखने को मिलता है। महर्षि अंगिरा ने स्नान के विषय में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा, दान करते समय हाथ में जल और  जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें, फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय हाथ में जल लेकर संकल्प करके दान करें, और यज्ञ - जप करते समय पहले संख्या का संकल्प करना आवश्यक होता है।
 
सिख समुदाय के लोगों के लिए भी कार्तिक पूर्णिमा का दिन बहुत महत्व रखता है, क्योंकि इसी दिन उनके संस्थापक गुरू नानक देव जी का जन्म हुआ था। सिख धर्म के अनुयायी इस दिन सुबह सवेरे स्नान इत्यादि करके गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और गुरु नानक देव जी के दिखाए गए रास्ते पर चलने का प्रण लेते है।
 
देव दीपावली की कथा :

पौराणिक कथा के अनुसार ताडकासुर नाम का एक राक्षस था, जिसके तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीन पुत्र थे। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने ताडकासुर का वध करके सभी को भय मुक्त किया था। किन्तु अपने पिता की मृत्यु का समाचार जानकार तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करने के लिए कठिन तप किया। ब्रह्मा जी ने उन तीनों की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने के लिए कहा। तीनों ताडकासुर पुत्रों ने ब्रह्मा जी से अमरता का का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा जी ने उन्हें अमरत्व न प्रदान कर सकने की बाध्यता के साथ कोई और वरदान मांगने के लिए कहा। 
 
जिसके बाद तीनों ने विचार करके ब्रह्मा जी से तीन अलग अलग ऐसे नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जहाँ से बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश को देखा जा सके। फिर एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें तो हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो कोई देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्मा जी ने उनको ये वरदान दे दिया।
 
तीनों असुर ब्रह्मा जी से वरदान पाकर बहुत खुश हुए। तत्पश्च्यात, ब्रह्मा जी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। जिसके बाद तीनों असुरों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। तीनो असुरो की बढ़ती दुष्टता से परेशान होकर इंद्र देव ने भगवान शिव की शरण ली। इंद्रदेव की विपत्ति सुनकर भगवान शिव ने इन दैत्यों का विनाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। 
 
इस दिव्य रथ का प्रत्येक भाग देवताओं की दिव्य शक्तियों से बना था। चंद्रमा और सूर्य से इसके पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर की शक्तियों से रथ के चार घोड़े बनें। हिमालय देव की शक्ति से धनुष का निर्माण हुआ और शेषनाग से धनुष की प्रत्यंचा बनी। स्वयं भगवान शिव की शक्ति से बाण बना और बाण की नोक अग्निदेव की शक्ति से तैयार हुई। इस दिव्य रथ पर सवार होकर भगवान शिव खुद दुष्ट राक्षसों से युद्ध करने के लिए गए। दिव्य शक्तियों से बनें इस रथ से भगवान् शिव ने तीनों भाइयों के साथ भयंकर युद्ध किया। जैसे ही ये तीनो भाई शिव जी के रथ के सामने एक सीध में आए, भगवान शिव ने उस दिव्य बाण से तीनों का एक ही तीर से विनाश कर दिया। इस युद्ध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह युद्ध कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।