एक नगर में एक साधू महात्मा पधारे थे।
उस नगर के राजा ने जब ये बात सुनी तब उन्होंने साधू महात्मा को राजमहल पधारने के लिए निमंत्रण भेजा. साधू जी ने राजा का निमंत्रण स्वीकार किया और राजमहल गए
राजा ने उनके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी महात्मा जी जब वहां से जाने लगे तब राजा ने उनसे विनती की और कहा -
"महात्मन ! कुछ सीख देते जाएँ"
तब साधू महात्मा ने उनके हाथों में दो कागज़ की बंद पर्ची देते हुए कहा -
" पहला तब खोलना जब आप बहुत सुखी रहो आपके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ हो, और दूसरा तब खोलना जब आप पर बहुत भारी संकट या मुश्किल आन पड़े"
इतना कह कर साधू ने राजा से विदा ली । राजा का सब कुछ अच्छा चल रहा था चारो तरफ सुख और वैभव से उसका राज्य जगमगा रहा था । बस उसे अपने उत्तराधिकारी की चिंता खाई जा रही थी । वो होता तो उससे सुखी इंसान और भला कौन होता ?
कुछ महीनों बाद उसके यहाँ पुत्र ने जन्म लिया। अब राजा के जीवन में बस खुशियाँ ही खुशियाँ थी।
उसे उस महात्मा की बात याद आयी उसने पहली पर्ची खोली ,उसमे लिखा था
ऐसा नहीं रहेगा
कुछ ही सालों बाद राजा के नगर पर दूसरे राजा ने आक्रमण कर दिया ,
इस युद्ध के दौरान सारी सम्पति और शाही खजाना खर्च हो गया, राजा पर भारी संकट आ पड़ा।
तब राजा को वो साधू महात्मा की दी हुई दूसरी पर्ची याद आयी। उन्होंने पलभर की भी देर किए बगैर उस पर्ची को खोला।
इस बार उस में लिखा था -
यह भी नहीं रहेगा
राजा सब समझ गए अभी उनका बुरा वक्त चल रहा है. यह ज्यादा दिन नहीं रहेगा
सुख हो या दुःख कुछ भी स्थायी नहीं होता
इसलिए सुख में इतराना नहीं चाहिए और दुःख में घबराना नहीं चाहिए