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प्राचीन भारत में नक्शाशास्त्र अत्यंत विकसित था

इस मंदिर के प्रांगण में दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ (खंबा) स्थापित है। यह ‘बाणस्तंभ’ नाम से जाना जाता है। यह स्तंभ कब से वहां पर हैं बता पाना कठिन है लगभग छठी शताब्दी से इस बाणस्तंभ का इतिहास में नाम आता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की बाणस्तंभ का निर्माण छठवे शतक में हुआ है उस के सैकड़ों वर्ष पहले इसका निर्माण हुआ माना जाता है।

बाणस्तंभ एक दिशादर्शक स्तंभ है जिस पर समुद्र की ओर इंगित करता एक बाण है इस बाणस्तंभ पर लिखा है -

‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिरमार्ग’

इसका अर्थ हुआ कि

इस बिंदु से दक्षिण धृव तक सीधी रेखा में एक भी अवरोध या बाधा(पृथ्वी का कोई भू-भाग) स्थित नहीं है। यानि सोमनाथ मंदिर के इस बिंदु से लेकर दक्षिण ध्रुव तक (अर्थात अंटार्टिका तक) एक सीधी रेखा खिंची जाए, तो  इस समूची दूरी में एक भी भूखंड (द्वीप या टापू) नहीं आता है जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं है।

आज के इस तंत्र विज्ञान के युग में इसे प्रमाणित करना संभव है। गूगल मैप में ढूंढने के बाद इस समूची दूरी में भूखंड नहीं दिखता है, जो उस संस्कृत श्लोक में सत्यता को साबित करता है।  सनातन संस्कृति समृध्दशाली ज्ञान की वैश्विक धरोहर संजोये हैं।

नक़्शे बनाने का एक शास्त्र होता है अंग्रेजी में इसे ‘कार्टोग्राफी’ (यह मूलतः फ्रेंच शब्द हैं) कहते है। पृथ्वी का पहला नक्शा किसने बनाया इस पर एकमत नहीं है। हमारे भारतीय ज्ञान का कोई सबूत न मिलने के कारण यह सम्मान ‘एनेक्झिमेंडर’ इस ग्रीक वैज्ञानिक को दिया जाता है। उनका कालखंड ईसा पूर्व 611 से 546 वर्ष था किन्तु उनका बनाया हुआ नक्शा अत्यंत प्राथमिक अवस्था में था। उस कालखंड में जहां जहां मनुष्यों की बसाहट का ज्ञान था बस वही हिस्सा नक़्शे में दिखाया गया। इसलिए उस नक़्शे में उत्तर और दक्षिण ध्रुव नहीं दिखाए गए थे। ‘एनेक्सिमेंडर’ ने पृथ्वी को सिलेंडर के रूप में माना था।

आज की दुनिया के वास्तविक रूप के करीब जाने वाला नक्शा ‘हेनरिक्स मार्टेलस’ ने साधारणतः सन 1490 के आसपास तैयार किया था। ऐसा माना जाता हैं की कोलंबस और वास्कोडिगामा ने इसी नक़्शे के आधार पर अपना समुद्री सफर तय किया था। सामान्यतः यह माना  जाता है की  ‘पृथ्वी गोल है’ इस प्रकार का प्रथम विचार यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों ने व्यक्त किया था।  ‘एरिस्टोटल’ (ईसा पूर्व 384– ईसा पूर्व 322) ने भी पृथ्वी को गोल माना था।

लेकिन भारत में यह ज्ञान बहुत प्राचीन समय से था जिसके प्रमाण भी मिलते है। सन 2008 में जर्मनी के विख्यात इतिहासविद जोसेफ श्वार्ट्सबर्ग ने यह साबित कर दिया था कि ईसा पूर्व दो-ढाई हजार वर्ष भारत में नक्शाशास्त्र अत्यंत विकसित था

अगर ऐसा नहीं होता तो बाणस्तंभ के निर्माण के समय, पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव है यह ज्ञान हमारे पास कहां से आया? अच्छा दक्षिण ध्रुव ज्ञात था, यह मान भी लिया तो भी सोमनाथ मंदिर से दक्षिण ध्रुव तक सीधी रेखा में एक भी भूखंड नहीं आता है यह ‘मैपिंग’ कैसे किया गया? इसके लिए पृथ्वी का ‘एरिअल व्यू’ लेने का कौन सा साधन उपलब्ध था? क्या उस समय पृथ्वी का विकसित नक्शा बना था?

इसका अर्थ यह हैं की ‘बाण स्तंभ’ के निर्माण काल में भारतीयों को पृथ्वी गोल है इसका ज्ञान था। इतना ही नहीं पृथ्वी का दक्षिण ध्रुव है (अर्थात उत्तर धृव भी है) यह भी ज्ञान था। यह प्राचीन शास्त्र है ईसा से पहले छह से आठ हजार वर्ष पूर्व की गुफाओं में आकाश के ग्रह तारों के नक़्शे मिले थे।

इसी ज्ञान के आधार पर आगे चलकर आर्यभट्ट ने सन 500 के आस पास इस गोल पृथ्वी का व्यास 4967 योजन हैं! (अर्थात नए मापदंडों के अनुसार 39668 किलोमीटर हैं) यह भी दृढतापूर्वक बताया। आज की अत्याधुनिक तकनीकी की सहायता से पृथ्वी का व्यास 40068 किलोमीटर माना गया है। इसका अर्थ यह हुआ की आर्यभट्ट के आकलन में मात्र 0.26% का अंतर आ रहा है जो निगलेक्लट किया जा सकता है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले आर्यभट्ट के पास यह ज्ञान कहां से आया?

नगर रचना के नक्शे उस समय उपलब्ध तो थे ही परन्तु नौकायन के लिए आवश्यक नक़्शे भी उपलब्ध थे। भारत में नौकायन शास्त्र प्राचीन काल से विकसित था। संपूर्ण दक्षिण एशिया में जिस प्रकार से हिन्दू संस्कृति के चिन्ह पग पग पर दिखते हैं उससे यह ज्ञात होता है की भारत के जहाज पूर्व दिशा में जावा, सुमात्रा, यवनद्वीप को पार कर के जापान तक प्रवास कर के आते थे। सन 1955 में गुजरात के ‘लोथल’ में ढाई हजार वर्ष पूर्व के अवशेष मिले हैं! इसमें भारत के प्रगत नौकायन के अनेक प्रमाण मिलते हैं। सोमनाथ मंदिर के निर्माण काल में दक्षिण धृव तक दिशादर्शन उस समय के भारतीयों को था यह निश्चित है।

सनातन संस्कृति ने सदैव "वसुदैव कुटुंबकम" यथार्थ - इस धरती के सर्व घटक (प्राणी-मनुष्य) एक परिवार है, की भावना में विश्वास रखा।  कभी किसी ज्ञान पर एकाधिकार जताकर पेटेंट नहीं करवाया। प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती, हमें अपनी सनातन संस्कृति पर गर्व है।